आजकल काफी उलझन में हूं। लगता है कोई अमूल्य निधि खो गई है। उलझन के बीच एक ऐसा प्रश्न खड़ा हुआ है जिसका उत्तर नहीं है। यह उलझन और उससे जुड़े प्रश्न सिर्फ मेरे ही सामने नहीं अपितु अपनी व्यापकता में एक बड़े समूह के सम्मुख है। बस समझौता परस्त लोगों को इसका आभास नहीं।
मैं ठहरा समझौतों के सदा खिलाफ रहने वाला वाला। सो उलझा हूं। मेरी यह उलझन अपने उस ‘गांव‘ को लेकर है जो ‘गांव‘ होते हुए भी ‘गांव‘ नहीं रहा। वह या तो शहर में समा गया या फिर शहर बन गया। हालांकि देखने में वह आज भी ‘गांव‘ जैसा ही है परंतु ‘गांव‘ के गुण उसमें दिखते ही नहीं। वेश-भूषा, बोली-भाषा, खान-पान, रहन-सहन में चमत्कारिक बदलाव तो आया ही है, मान-मर्यादा, बात- व्यवहार, काम-काज, अदब- लिहाज, मेल-जोल, भाईचारा सब कुछ तो बदल गया है।
बाग-बगीचा, ताल-तलैया, घूर-खलिहान सिमट गए। झोपडि़यों का स्थान अट्टालिकाओ ने ले लिया। चारागाह और खेल मैदान तो रहे नहीं, आंगन में दीवार खिच गई। संयुक्त परिवार सपना हो गया। एकल परिवार अपना हो गया। तब बचा क्या ‘गांव‘ को ‘गांव‘ कहने के लिए।
गांव तो वह था जहां गाय,बैल,भैंस दरवाजे की शोभा होते थे। भोर से ही उन्हें चारा खिलाने, दूध दुहने और खेतों में हल लेकर जाने को लेकर खटर-पटर होती थी। जांते (चकिया) की घड़घड़ाहट ओखली और मूसर की घप-घप कानों में गूंजती थी। सर्दियों में गन्ना छीलने को लेकर चहल-पहल कायम रहती थी। बच्चे और युवा बिना दातून के गन्ना चूसकर पेट भर लेते थे। सुबह से ही कोल्हार चलना शुरू हो जाता था, जो आधी रात को गुड़ पकने या भेली बांधने के साथ समाप्त होता था। कोल्हार में बारी-बारी लोग अपने बैल से गन्ना पेरते थे। महिलाएं उसी कोल्हार से रस लाती थी। आलू और मटर की घुघुरी के साथ रस पीकर लोग मस्त हो जाते थे। दिन में भोजन की जरूरत नहीं पड़ती थी। गांव के तमाम किशोर आलू लेकर कोल्हार पहुंच जाते थे। कुछ लोहे की तीली में गूँथकर खौलते रस में पकाते और कुछ गुलौर के पीछे की आग में भूनते थे। जिसे सभी बड़े चाव से खाते थे।
उसी कोलहार की चिरई के इंतजार में घंटो बीत जाता था। तब लोगों के बीच अनोखा प्रेम था। किसी के कहीं आने जाने पर टोका टाकी नहीं होती थी। लेकिन लोग मर्यादा का पालन भी करते थे।
गोजई,बजरी, मक्के और मकुनी की मोटी रोटी,आम और पुदीना की चटनी,सरसो, बथुआ और चने का साग, मूंग,मसूर,लतरी, बाकले की दाल का नाम सुनकर मुंह से लार टपकती थी। साँवाँ,कोदो,टांगुन,तीसी (अलसी) जड़हन से घर भर जाता था। बैल चालित रहट,चरखी और ढकरपेच करती ढेकुली सिंचाई के साधन हुआ करते थे।
गुल्ली-डंडा, गोली-कन्चा,चोर-सिपाही, लुका-छिपी प्रमुख खेल हुआ करते करते थे। घर-घर में दूध-दही की नदियां बहती थी। छाछ को देख मन हिलोरे मारता था।बिड़वा-गोंनरी,खपड़ा- नरिया,खाची- पलरी, भरूका- परई,कोहा-गगरी तत्कालीन कला के उत्कृष्ट नमुने थे।
होली में पखवारे भर पहले से लोगों में मस्ती छा जाती थी फाग के राग,कीचड़ व रंग के साथ छोटे-बड़े का भेद समाप्त हो जाता था। भांग मिश्रित ठंडई पीकर फाग गाती युवाओं की टोली गांव की संस्कृति की वाहक होती थी। सावन में बागों में झूले की पेंग के साथ कजरी गाती नव योवनाओ में गजब का उत्साह होता था।
गुडि़या पीटते बच्चे,कबड्डी और कुश्ती खेलते युवा,मस्ती में सराबोर होते थे। बाप के कंधे पर चढ़कर गांव के मेले में पहुंचे बच्चे कठपुतली की नाच के साथ बाईस्कोप देख, गुड़ही जलेबी खाकर दुनिया की सारी खुशी पा जाने का एहसास करते थे। घुघुरी-खिचड़ी ले कर आए भाई-बाप को देखकर नव विवाहिताए प्रफुल्लित होती थी। त्योहारों की गुझिया और गुलगुले की खुशबू से पूरा गांव महक उठता था।
कटिया-पिटिया,दँवरी ओसावन में महीना गुजर जाता था। पैरा(भूसा मिश्रित गेहूं के ढेर) पर दरी बिछाकर सोने के बाद दूधिया चांद को निहारते रात ढल जाती थी। नींद न आने पर लोरी सुनाती दादी नानी, पनघट पर ठिठोली करती पनिहारिन आज गायब है। बडेर पर कागों की कांव-कांव और बागों में कोयल की कूक ‘नात‘ के आगमन की सूचना देते थे। बांस के टट्टर लगे कच्चे घर मे ढिबरी के मद्धिम प्रकाश में आंख पर जोर देकर चावल बीनती, कठवत में आंटे गूँथती और बटुले में दाल पकाती घर की महिलाओं के सिर से आंचल कभी हटता नहीं था।
हमारे बचपन का ‘गांव‘ तो अब कहीं दिखता ही नहीं। घरों के सामने ‘अतिथि देवो भव‘ की पट्टिकाएं ‘शुभ लाभ‘ से होते हुए अब ‘कुत्तों से सावधान‘ तक पहुंच गई है। आज कोई भूखे का पेट भरना नहीं चाहता। तब गरीबी होने के बाद भी कोई परिवार भूखा नहीं सोता था। गांव के लोग मिलकर मदद करते थे। आज दूसरे का निवाला छीन लेना बड़प्पन का प्रतीक बन गया है। तब दूसरे के दुःख को अपना दुःख समझकर समाधान में लोग हाथ बटाते थे, आज दूसरे का सुख देखा नहीं जाता। तब दिल के धनी को धनवान कहा जाता था, आज ऐसे लोगों को बेवकूफ समझा जाने लगा है। जिसके पास आज चांदी का जूता है, वह दिल का काला होते हुए भी सम्माननीय हुआ है। तब कठोर परिश्रम सफलता की कुंजी था,आज दगाबाजी, चालबाजी और दोगलापन सफलता की सीढ़ी है। तब मांगलिक आयोजनों में घर की महिलाएं रसोई सम्हालती थी और बाहर की महिलाएं नृत्य करती थीं।
आज बाहर की महिलाएं रसोई संभालती हैं और घर की महिलाएं नृत्य करती हैं। तब लोग टाट पर बैठ कर पत्तल में भोजन करके मिट्टी के कुल्हड़ में पानी पीकर डकार लेते थे। आज आलीशान पांडालों में बिछी मखमली कालीन पर दौड़-दौड़ कर भोजन करने में शान समझा जाता है। आज भोजन के बाद हाथ धोने के बजाए नैपकिन में पोछ लिया जाता है। तब लोग शर्म हया के दायरे में होते थे। आज निर्लज्जता और भौडापन शान का प्रतीक है। ऐसे में वह ‘गांव‘ तो अब सपना हो गया।
आजादी के 68 सालों में वक्त के साथ बहुत कुछ बदल गया। बैलगाड़ी से वायुयान तक और पाती से इंटरनेट की थाती तक की यात्रा में विकसित कल कारखानों ने हस्तकला की कमर तोड़ दी।
बेरोजगारी के चलते तमाम युवाओं के शहरों की ओर पलायन के साथ ही ‘गांव‘ विलुप्त हो गए। गलियों,चैबारों से निकलकर हम मॉल और पंचतारा तक पहुंच गए। हस्त चालित बेना-पंखा वातानुकूलन में खत्म हो गया। चबूतरा और दालान का स्थान फ्लैट व मकान ने ले लिया। काका-काकी, दादा-दादी गुजरे जमाने की बात होने के साथ माँ भी ‘मॉम‘ और पिता ‘डैड‘ हो गए। मैगी-पिज्जा के दीवानों को देखकर खजूर, जामुन और देशी आम किस्मत पर रोने को विवश हो गए। गुलदान में मुस्कुराते कैक्टस को देख आंगन की तुलसी सूख गई।
गाय, गोबर, और कंडे से दूर भागते लोग दूध-दही और लस्सी के बजाए व्हिस्की,कोक,पेप्सी के दीवाने हो गए। पहले लोग किताबों के कीड़े होते थे आज किताबों को कीड़े खा रहे हैं।
कथरी,गोनरी,खटिया पर खर्राटे थे अब मुलायम बेड पर करवटें हैं। मंडप,पांडाल और संगीत आज डिस्को, पॉप,और आइटम सांग के आगे शर्मिंदा हैं। बुआ, मौसी, बहन, सब के सब कजन हो गए। आदर,प्रेम, सत्कार का स्थान स्वार्थ,नफरत और दुत्कार ने ले लिया। सीधे,सहज और सरल ढंग से रहने वालों की नई पीढ़ी धूर्त,चालाक और कुटिल हो गई। संतोष,सुख और चैन के जाते ही सभी बदहवाश, दुखी और बेचैन हो गए। तब कम हो कर भी जो मजबूत थे, वही आज ज्यादा होकर भी कमजोर हैं। एकता तो दूर-दूर तक दिखती नहीं। आखिर में गांव और शहर की संस्कृति को रेखांकित करता मुनव्वर राना का यह शेर भी उसे न बचा सका-
‘‘तुम्हारे शहर में मैयत को सब कांधा नहीं देते,
हमारे गांव में छप्पर भी सब मिलकर उठाते हैं‘‘