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मैं शहर टाण्डा हूँ, आइए मैं आपको अपनी आत्मकथा सुनता हूँ, मेरी व्यवथा थोड़ा लम्बी अवश्य है लेकिन बात दौरे गुलामी सन 1916 से शुरू होती है जब टाण्डा को शहर (नगर पालिका परिषद) का नायाब तोहफा दिया गया था। मैं बहुत खुश था और नई उमंगों के साथ उड़ता रहा। मैंने बहुत से अच्छी व बुरी यादों को अपने अंदर समा रखा है। मैन कई पीढ़ियों को अपने सामने पैदा होकर अपनी गोद मे खेलते हुए उनकी जवानी व बुढ़ापे के साथ बेटियों को डोलियों को बिदा करने से लेकर अर्थियों व जनाजों को भी उठते हुए देखा है।


पवित्र सरयू तट के किनारे आबाद होते हुए कई दशकों से राजनीतिक उतार चढ़ाव के साथ शराफत व बदमाशी भी देखा तथा काफी धनाढ्य लोगों को सड़कों पर आते व सड़क के लोगों को काफी अमीर होते भी देखा हूँ। मैं कभी टूटा नहीं अनवरत चलता रहा हूँ। मुझे तोड़ने व बर्बाद करने की बहुत सी कोशिशें हुई और मैं घायल भी कई बार हुआ लेकिन मैंने अपनी अखण्डता को कभी बिखरने नहीं दिया।
मेरे चारों तरफ रूहानी ताकतों का पहरा है जहां मएक तरफ तलवापार बाबा बाबा हक्कानी शाह तो दूसरी तरफ पवन पुत्र हनुमान का प्राचीन स्थल (हनुमान गढ़ी) है। एक तरफ शहीद हारून रशीद बाबा तो दूसरी तरफ महादेवा घाट की पवित्र स्थली है जो मुंह हमेशा संभाले थाती है।

विश्व पटल पर मैं अपनी पहचान टाण्डा टेरीकॉट कपड़ों से बनाने की कोशिश तो कर रहा हूँ और मैन कई ऐसी महान शख्सियतों को इस मिट्टी से जन्म भी दिया है जो देश ही नहीं बल्कि विदेशों में मेरा नाम रौशन कर रहे हैं, पर मैं अब भी अपनों से ही आकार छला जाता हूँ।
अब नया दौर है, सदी भी बीत गई, लोग व दुनिया विकसित हो रहे है पर मैं अपनी पुरानी ज़िन्दगी से बाहर नहीं आ पा रहा हूँ। उसके पीछे मेरे अपने लोगों की साजिश व उनका अपना स्वार्थ शामिल है।

सुनता हूँ काफी हो हल्ला मचा हुआ है मेरे मुस्तकबिल का शायद फिर चुनाव होने वाला है। मेरी इज्जत का सौदा फिर किसी “साहब” के साथ कर दिया जाएगा और मेरे ऊपर जाति, धर्म, समुदाय, बिरादरी, बड़े आदमी के नाम से कोई थोप दिया जाएगा और मेरे नाम से किसी “साहब” की शान में चार चांद लग जायेगा।

मैने दो तीन दशकों से ऐसे कई “साहब” चेयरमैनों को काफी नजदीक से देखा है जो गरीब, बुनकर, मज़दूरों, बेसहारों के हक पर डाका डाल कर स्वंय तो करोड़पतियों की सूची में शामिल हो जाते हैं और गरीब आदमी जस का तस तड़फता रह जाता है। और सुनिए, इसके लिए “साहब” को ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती है, बस समुदाय के नाम पर, जाति के नाम पर,पार्टी के नाम पर, गरीब मासूम जनता को बरगला कर गंदी राजनीति का सहारा लेते हैं और चन्द नेताओं, ठेकेदारों, बाबुओं और अधिकारियों के सामने नमस्तक होना पड़ता है।

एक और सच बात बताऊँ, ये साहब लोग अंदर से बेहद कमजोर होते हैं और ये कहीं भी शासन प्रशासन से निगाह मिलाकर बात तक नहीं कर सकते हैं।
मैं भी बाकी शहरों की तरह खूबसूरत बनना चाहता हूँ, इन “साहब” “ठेकेदारों” व “अधिकारियों” के भ्रष्टाचार ने मुझे बीमार कर दिया है। सिर्फ सड़कों व नालियों के निर्माण को जो सिर्फ 100 दिन में ही टूट जाती है उसे मेरा विकास समझा कर मेरी भोली जनता को खुश करने की नाकाम कोशिश करते हैं जबकि शिक्षा, स्वास्थ व उन सैकड़ों चीजों की तरफ ध्यान ही नहीं जाने देते जिससे मैं जवान हो सकता हूँ।

मेरे ऊपर भारी हाउस व वाटर टैक्स व तमाम तरह के सरकारी कर्ज के बोझ से दबा दिया गया है। मैं दिन भर अपनी आवाम के घरों में इस कर्ज़ की लड़ाई झगड़े और इस कर्ज के बोझ से निकलने के उपायों को ढूंढते हुए देखता हूँ।
दूसरी तरफ मेरे शहर के बच्चों व नौजवानों को नशे व जुए में धकेल कर लावारिश सा बना दिया है। मां, बाप,भाई, बहन, पत्नियों व बेटियों को बिना आंसू के ही रोने पर मजबूर कर दिया है जिससे मैं काफी ग़मज़दा हूँ लेकिन आपको कोई फर्क नहीं पड़ता ये सोच कर बहुत बेचैन रहता हूँ।

अभी मुझे पैदा हुए दिन ही कितने हुए, मेरे सामने तो कई हज़ार साल के शहर व कस्बे पड़े हैं, और अगर अब भी ध्यान ना दिया कि कोई ऐसा चेयरमैन आये जो “साहब” ना हो बल्कि मेरा इलाज़ व सेवा करने वाला हो, जिसके अंदर धन ना कमाने बल्कि सेवा करने का जज़्बा हो, जो मेरे घाव का इलाज करे, मेरे अपनों को इस अंधेरे भविष्य से निकालने वाला हो। जो नाले खड़ंजा के भ्र्ष्टाचार से दूर हो और उन सैकड़ों चीजों से मेरे शहर को संवारने वाला हो और मेरे शहर को जाति, धर्म, वर्ग से ऊपर उठ शासन प्रशासन से निगाह से निगाह मिलाकर के उन सारी सुविधाओं को दिलाये जिससे मेरे शहर वासियों को खुशहाली मिले और मुझे मरहम लगाए। काश ! काश ! काश!

बहुत उदास हूँ, बड़ी उलझन में हूँ, सोचता हूँ आपको फर्क पड़ेगा या नहीं, पर एक बात बोल रहा हूँ कि अबकी बार जाति, धर्म, बिरादरी, परिवार का लबादा ओढ़ने वाले को मत बैठाना वरना मैं बिखर जाऊंगा और आने वाली नस्लों से शिकायत करूँगा कि जब मेरी सांसें टूट रही थी तो मैंने तुम्हारे बड़ों को सचेत किया था पर वो कुम्भकर्ण की नींद सो रहे थे और फिर आने वाली नस्लें तुम्हे माफ नहीं करेंगी—-
आपका अपना शहर टाण्डा
(आत्मकथा प्रथम भाग : लेखक आलम खान हेल्प प्वाइंट एनजीओ अध्यक्ष)